Sunday, February 3, 2019

514.मुहब्बत की आजमाइश

मुहब्बत की आजमाइश
वो इस कदर मुझे आजमाने लगे
वक्त-बेवक्त हर वक्त बुलाने लगे।
मुहब्बत न हुई मानो रेस हो गयी
वक्त से भी तेज मुझे भगाने लगे।
दीदारे चाँद की ख्वाहिश क्या की
रातों में अक्सर मुझे जगाने लगे।
माना कि इश्क़ आग का है दरिया
मगर वो गैरों से मुझे जलाने लगे।
अश्कों से भी क्या इश्क़ हो गया
जो बेवजह खुद को रुलाने लगे।
दर्द से भी मुहब्बत जो कर लिया
ज़ख्मो को लफ्ज़ों में बहाने लगे।
इतनी जो इबादत कर दी प्रियम
वो खुद को ही खुदा बताने लगे।
©पंकज प्रियम

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