Tuesday, May 26, 2020

841. ज्वार हो

ज्वार हो
रोक सकता कौन उसको, जिस नदी में धार हो,
डूबता माझी कहाँ जब,      हाथ में पतवार हो।
बन्द कर दो रास्ते सब,   या खड़ी कर मुश्किलें-
तोड़ देगा साहिलों को,  जिस समंदर ज्वार हो।।

मोड़ सकता कौन उसको,   जो पवन रफ़्तार हो,
वो भला कब हारता जो,  खुद बना हथियार हो।
व्यूह रच लो चाह जितनी, वीर योद्धा कब रुका?
जीत लेता हर समर को, जिस हृदय यलगार हो।।

जीत सकता कौन उसको, जो स्वयं ललकार हो,
वक्त से पहले निकल कर,   जो खड़ा तैयार हो।
फेंक पाशे चाल जितनी, अब नहीं कुछ हारना-
ठान ले जो दिल प्रियम तो, स्वप्न हर साकार हो।।

अब चलो आगे बढ़ो तुम, वक्त की दरकार हो,
कौन रोकेगा तुझे अब,  तुम समय हुंकार हो।
व्यूह रचते सब रहेंगे, तुम समय के साथ चल-
छेड़ना क्या युद्ध उससे, जो गया ख़ुद हार हो।।

वो भला कब जंग जीता, जो गया मन हार हो,
हारता है हर समर जो,    देखता पथ चार हो।
शस्त्र दुश्मन देह जीता,   मन वही है जीतता-
त्यागता हर द्वेष मन से, दिल भरा जो प्यार हो।।

शब्द ही जब ढाल हो औ'  शब्द ही तलवार हो,
शब्द ही रणभूमि सजकर,    युद्ध को तैयार हो।
शब्द दुश्मन शब्द साथी, देखना यह जंग रोचक-
शब्द से खुद को बचाना,  शब्द से ही वार हो।।

©पंकज प्रियम
©पंकज प्रियम

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