समंदर हूँ मैं लफ़्ज़ों का, मुझे खामोश रहने दो, छुपा है इश्क़ का दरिया, उसे खामोश बहने दो। नहीं मशहूर की चाहत, नहीं चाहूँ धनो दौलत- मुसाफ़िर अल्फ़ाज़ों का, मुझे खामोश चलने दो। ©पंकज प्रियम
क़िरदार लिखूंगा तो कहोगे, क्यूँ यही हरबार लिखता है, जो दिखता है जमाने में वही अख़बार लिखता है। फिज़ाओ में जरा देखो ज़हर किसने अभी घोला- प्रियम यूँ ही नहीं सबका सही किरदार लिखता है।। ©पंकज प्रियम
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