ग़ज़ल
212*4
राह चलते कभी बेवफ़ा मिल गया,
ज़िन्दगी को तभी रास्ता मिल गया।
साथ छूटा तभी आँख मेरी खुली,
प्यार का इक नया वास्ता मिल गया।
हम जफ़ा को वफ़ा जो समझते रहे,
यार हमको सही फ़लसफ़ा मिल गया।
बेवफ़ा को वफ़ा की क़दर कब हुई,
मुफ्त में जो अगर बावफ़ा मिल गया।
ज़िदंगी की हकीकत यही है प्रियम,
बाखुदा को यहाँ नाख़ुदा मिल गया।
©पंकज प्रियम
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