Sunday, May 24, 2020

839. दुर्दशा

दुर्दशा,
2122 2122 2122 212
क्या कहूँ? कैसे कहूँ अब ? कुछ नहीं लब बोलता।
देखकर गर चुप रहूँ तो,  रक्त रग में खौलता।।

क्या ख़ता इनकी भला थी, मिल रही जो है सज़ा?
बोल ईश्वर कह खुदा तू,    क्या अभी तेरी रज़ा?
देखकर यह दुर्दशा सब,    क्यूँ नहीं मुँह खोलता?
क्या कहूँ? कैसे कहूँ अब , कुछ नहीं लब बोलता।।

छिन गयी रोजी तभी तो,  चल पड़े सब गाँव को,
गर्भ को ढोकर चली माँ,  खोजती इक ठाँव को।।
राह चलते जो जनी वह,    देखकर दिल डोलता।
क्या कहूँ कैसे कहूँ अब,    कुछ नहीं लब बोलता।।

बोझ घर का माथ पर ले,   गोद में नवजात को।
रक्तरंजित चल पड़ी माँ,    नाल बांधे  गात को।।     
देख जननी दुर्दशा यह,   कौन मन को रोकता।
क्या कहूँ कैसे कहूँ अब,  कुछ नहीं लब बोलता।।

काल कोरोना बना तो,     छुप गया हर अक्स है।
मर गयी संवेदना या ,       मर गया हर शख्स है।।
खौफ़ का मंज़र दिखाकर, जान खुद की तौलता।
क्या कहूँ कैसे कहूँ अब,   कुछ नहीं लब बोलता।।

आँख पट्टी बांध ली है ,       या बना धृतराष्ट्र है।
मौन साधे भीष्म सा क्यूँ? मर रहा जब राष्ट्र है।।
रौब में सब आदमी तो,      पीड़ितों को रौंदता।
क्या कहूँ कैसे कहूँ अब,  कुछ नहीं लब बोलता।।

पेट की ख़ातिर तभी सब,  बन गये मजदूर तब।
पेट की ख़ातिर अभी तो, बन गये मजबूर अब।।
छोड़कर के अब शहर को, गाँव है वह लौटता।
क्या कहूँ कैसे लिखूँ अब, कुछ नहीं लब बोलता।।

©  पंकज भूषण पाठक प्रियम

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