पहाड़ी नदी दीवानी है।
पहाड़ों से लहराती
बलखाती उतरती
अल्हड़ सी जवानी है।
उछलती मचलती
बहकती चहकती
अलमस्त रवानी है।
निर्मल कोमल शीतल
कल कल हर पल
सरस् निर्झर पानी है।
बचपन सी भोली
कोयल की बोली
परियों की कहानी है।
बीच राह हर रोड़े
को चीरती,काटती
हुँकार भरती भवानी है।
ग्लोबल वार्मिंग से
बर्फ पिघलते पर्वत
के आंखों का पानी है।
धरा की प्यास बुझाती
मानव पाप को धोती
मानो तो गंगा या पानी है।
नभ को चूमती
गिरि गोद पलती
सागर में मिट जानी है
उमड़ती घुमड़ती
सँवरती बिखरती
खुद राह बनाती
पहाड़ी नदी दीवानी है।
©पंकज भूषण पाठक "प्रियम"
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