सिंदूर
चुटकी भर सिंदूर लगा
सजनी सुंदर सजती है।
सोलह शृंगार होता पुरा,
माथे जो लाली रचती है।
बिन इसके सुहाग अधूरा,
हर नारी अधूरी लगती है।
चटक सिन्दूरी सूरज आभा,
सजा के औरत फबती है।।
चुटकी भर सिंदूर की कीमत
सुहागन सारी समझती है।
तभी सुहाग बचाने को नारी,
यमराज से भी उलझती है।।
औरत का सम्मान है लाली,
जिसको माँग में भरती है।
सिंदूर सजाकर लगती सुंदर,
तभी गुमान वो करती है।।
सिंदूर की कीमत पूछो उनसे
जिनकी माँग उजड़ती है।
घुट-घुट कर के आँसू पीती,
पतझड़ के जैसे झड़ती है।।
सिंदूर सुहागन का है दर्पण,
जिसे रोज निहारा करती है।
लाज सिंदूर की रखने को
नारी हरपल जीती मरती है।।
©पंकज प्रियम
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