Saturday, September 8, 2018

427.दोहे

दोहे

सूरज से उगते रहो,करो जगत पे राज।
कर्म डगर चलते रहो,सच्चाई की राह।।

भक्ति-डोर से है बंधा,ये सारा संसार।
जात-पात सब से परे,धरती करती प्यार।।

नफरत की ज्वाला बढ़ी,राजनीति का खेल।
सच ही लिखती लेखनी,बिगड़े उनका मेल।।

करता वो अपराध है,जो रहता है मौन।
अपना तो बस हाथ है, साथी बनता कौन ?

सब जंगल तो कट रहे,कहाँ मिलेगी छाँव?
भटक रहे हैं जानवर,कहाँ मिलेगी ठाँव ?

©पंकज प्रियम

No comments: