Thursday, September 27, 2018

435.अपराजिता

नारी तू अपराजिता

भला किसने कभी तुमसे
यहां कोई जंग है जीता
सदा ही हार मिली सबको
नारी तुम सदा हो अपराजिता।

जीत लेती हो मौत को
नवसृजन करती सह के
नौ माह की प्रसव वेदना।
पुरुष कहाँ तुमसे कभी जीता।
नारी तुम सदा हो अपराजिता।

कहाँ सुकून मिला किसको
यहां अपमानित कर तुझको
द्रौपदी बन महाभारत रचती
कभी रामायण की तुम सीता
नारी तुम सदा हो अपराजिता।

हर युग में तुझको सबने तोड़ा
लेकिन हिम्मत नहीं तुमने छोड़ा
अहिल्या सा शापित जीवन
कभी अग्निपरीक्षा देती सीता
नारी तुम सदा हो अपराजिता।

माँ, बेटी,पत्नी और बहना
हर घर की तुम हो गहना
सागर की लहरों सा समर्पण
अविरल बहती तुम हो सरिता
नारी तुम सदा हो अपराजिता।
©पंकज प्रियम

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