Friday, September 28, 2018

437.गज़ल. नहीं रहा


समंदर का अब कोई साहिल नहीं रहा
महफ़िल में अब कोई शामिल नहीं रहा।

चल दिये मुंह फेर करके वो इस कदर
उनकी मुहब्बत के मैं क़ाबिल नहीं रहा।

हम दिनरात इश्क़ उनसे जो करते रहे
खो दिया चैन,कुछ हासिल नहीं रहा।

अपने दिल में छुपा के रखा था उसको
निकले वो ऐसे की दिल,दिल नहीं रहा।

दिल बहलाने को बहुत मिलते हैं मगर
किसी से "प्रियम" दिल,मिल नहीं रहा।
©पंकज प्रियम

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