Saturday, September 22, 2018

431.गंगा




गंगा
सुनो!गंगा ने है सबको पुकारा
क्या तुझको मन नहीं धिक्कारा
धोया है इसने हर पाप तुम्हारा
ढोया है इसने  सन्ताप तुम्हारा।
शीतल निर्मल कल कल गंगा
करते सब इसको हरपल गन्दा
कहां बहती अब अविरल धारा!
ढोकर चलती अब कचरा सारा।
स्वर्ग से उतरी बनके मोक्ष द्वार
धरा ने दिया प्यार इसे बेशुमार
सगर पुत्रों को तब जिसने तारा
आज हमने उस गंगा को मारा।
धोती रही जो सबके पाप गंगा
हो गयी मैली खुद आज गंगा
माँ बनके दिया सबको सहारा
सिमटता अब अपना किनारा।
बना लिया है अब कैसा धंधा
बोतल में बिकने लगी है गंगा
रुक गयी अब अविरल धारा
प्रदूषित हो गया है जल सारा।
करते रहोगे जो इसको गन्दा
कहीं रूठ न जाय तब गंगा
कर रही प्रकृति तुम्हें ईशारा
मिटेगा अब अस्तित्व तुम्हारा।
प्रदूषण को दूर भगाना होगा
गंगा को स्वच्छ बनाना होगा
तभी बचेगा अस्तित्व हमारा
गंगा बहेगी जो अविरल धारा।
कदम से कदम मिलाना होगा
कचरे से मुक्ति दिलाना होगा
स्वच्छ हो जब इसका किनारा
तभी बहेगी गंगा निर्मल धारा।
©पंकज भूषण पाठक"प्रियम"


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