समंदर हूँ मैं लफ़्ज़ों का, मुझे खामोश रहने दो, छुपा है इश्क़ का दरिया, उसे खामोश बहने दो। नहीं मशहूर की चाहत, नहीं चाहूँ धनो दौलत- मुसाफ़िर अल्फ़ाज़ों का, मुझे खामोश चलने दो। ©पंकज प्रियम
मुक्तक-कविता
जले जब धूप में पर्वत, तभी सरिता निकलती है, सजा ले प्रेम का दर्पण, तभी वनिता निकलती है। किसी में प्यार गहराता,किसी को जख़्म हो जाता- दिलों में दर्द जो उमड़े, तभी कविता निकलती है।
©पंकज प्रियम गिरिडीह, झारखण्ड
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