विरह वेदना
सावन का यह सूखा मौसम, कैसे करूँ शृंगार।
धरती तड़पे नदिया सूखी, बदरा है उस पार।
बैचेनी में धरती सारी,......अम्बर रहा निहार।
मोर पपीहा गुमसुम बैठे,.. जैसे बिरहन नार।
सावन तो आया है लेकिन, साजन भी उस पार।
कैसे काटूँ रतिया सारी,.......जियरा में अंगार।
धार-धार बरखा के जैसे,......नैना बहे हजार।
बिजुरी चमके रह-रह ऐसे, मारे जिया कटार।
©पंकज प्रियम
No comments:
Post a Comment