समंदर हूँ मैं लफ़्ज़ों का, मुझे खामोश रहने दो, छुपा है इश्क़ का दरिया, उसे खामोश बहने दो। नहीं मशहूर की चाहत, नहीं चाहूँ धनो दौलत- मुसाफ़िर अल्फ़ाज़ों का, मुझे खामोश चलने दो। ©पंकज प्रियम
कोई छेड़े जो कुदरत को, यही प्रतिकार है मिलता, कहीं पे बाढ़ कहीं सूखा, कहीं अँगार है मिलता। मिटाकर सारे वन -उपवन, खड़ा कंक्रीट का जँगल- धरा को कष्ट जब होता, यही उपहार है मिलता।। ©पंकज प्रियम
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