समंदर हूँ मैं लफ़्ज़ों का, मुझे खामोश रहने दो, छुपा है इश्क़ का दरिया, उसे खामोश बहने दो। नहीं मशहूर की चाहत, नहीं चाहूँ धनो दौलत- मुसाफ़िर अल्फ़ाज़ों का, मुझे खामोश चलने दो। ©पंकज प्रियम
अरे आषाढ़ में तरसे,.....अभी सावन कहाँ बरसे बरसती क्यूँ नहीं बरखा, सभी का मन यहाँ तरसे। कहीं पे बाढ़ कहीं सूखा, करे क्यूँ खेल तू बरखा- जरा बरसो अभी ऐसे,.. सभी तनमन यहाँ हरसे।। ©पंकज प्रियम
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