Wednesday, August 29, 2018

418.प्रकृति की पुकार

प्रकृति की पुकार

अरे! देखो मनुपुत्रों!
क्या क्या लेकर आई हूँ
जो दिया था,चुन लाई हूँ
वर्षों से पड़ी थी ये सारी
मेरे पास तुम्हारी अमानत
वही सौगात लौटाने आई हूँ।

ये बोतल,ये प्लास्टिक के थैले
अपने फिजूल की चीजों को
तुमने किया था जो मेरे हवाले
कितना घुट रहा था दम मेरा
वही जज़्बात बताने आई हूँ।

मैं हूँ धरा,जननी तुम्हारी
कैसे रखती चीजें ये सारी
मैं हूँ प्रकृति,नहीं मैं बेचारी
नहीं चाहिए दौलत तुम्हारी
दी है तुमने मुफ्त की बीमारी
वही सौगात लौटाने आई हूँ।

मैं प्रकृति,नहीं कुछ खाती
जो कुछ भी किसी से पाती
सौ गुणा से अधिक मैं लौटाती
देख लो कुछ भी नहीं मैंने रखा
किसी भी वस्तु को नहीं मैंने चखा
तुम्हारी हर चीज लौटाने आई हूँ।

है वक्त तू अब तो सम्भल जा
और कितनी सहेगी तेरी वसुधा
तुम्हारे ही कर्मो से आती विपदा
तेरा भी हश्र होगा पूछो न कैसा
धरती पे बिखरे कचरों के जैसा
तू कुछ भी नहीं प्रकृति के आगे
तुम्हें तुम्हारी औकात बताने आई हूँ
©पंकज प्रियम

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