Thursday, October 11, 2018

456.विहान

विहान

घर घर नारी का अपमान
पल पल टूटता अभिमान
सिसक रहा बचपन यहाँ
न जाने कब होगा विहान?

सूख रहे सब खेत खलिहान
बंजर जमीं,तपता आसमान
कर्ज़ के दलदल सब है फंसा
न जाने कब होगा कल्याण?
       
सरहद पे रोज मरता जवान
भूखे पेट रोज मरता किसान
सियासत का घनचक्कर यहाँ
पल पल खुद से डरता इंसान।

©पंकज प्रियम

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