वक्त के हाथों बड़ा लाचार हूँ
हाँ मैं हादसों का शिकार हूँ।
अपनों की खातिर मरते मरते
अपनों से ही पाया दुत्कार हूँ।
जब जब चाहा बेहतर करना
पाया असफलता का द्वार हूँ।
तमन्नाओं की हर ख़्वाहिश में
किया स्वयं कहाँ स्वीकार हूँ।
कौन अपने?कौन पराये यहाँ
रोज इन सवालों से दो चार हूँ।
जब भी निकलता हूँ सफ़र में
हुआ मैं हादसों का शिकार हूँ।
©पंकज प्रियम
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