प्रलय
कहीं पे सूखा, कहीं पे बाढ़
सज़ा ये कुदरत से छेड़छाड़।
ये प्रलयंकारी बाढ़ भयंकर,
ताण्डव मानो करते शंकर।
सुनो काल की तुम दहाड़,
कहीं पे सूखा कहीं पे बाढ़।
जिसके हिस्से जितना होगा,
सजा उसे तो भुगतना होगा।
काट के जंगल दिया उजाड़,
कहीं पे सूखा, कहीं पे बाढ़।
नहीं किसी को माफ़ करेगा,
कुदरत तो इन्साफ करेगा।
तोड़ के पत्थर खोदा पहाड़,
कहीं पे सूखा ,कहीं पे बाढ़।
बरसात में सूखा पड़ने लगा,
गर्मी में बादल झड़ने लगा।
सब संतुलन दिया बिगाड़,
कहीं पे सूखा, कही पे बाढ़।
जलप्लावित हैं गाँव-शहर,
डूबता घर हर ठाँव डहर।
प्रलय से कांप रहा है हाड़,
कहीं पे सूखा ,कहीं पे बाढ़।
ग्लोबल वार्मिंग चर्चा खूब,
प्लानिंग में बस खर्चा खूब।
लूट ली धरती इसके आड़,
कहीं पे सूखा, कहीं पे बाढ़।
कूड़ा-कचरा नदी में डाल,
सोख लिया सब रेत निकाल।
प्लास्टिक धरती का कबाड़,
कहीं पे सूखा ,कहीं पे बाढ़।
प्लास्टिक कचरा मिटाओगे,
धरती को स्वच्छ बनाओगे।
तो बीमारी क्या लेगी उखाड़,
न फिर सूखा, न फिर बाढ़।
©पंकज प्रियम
02/10/2019
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