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Thursday, August 30, 2018

419.विरोध

विरोध

गरीबों पे जुल्म जब होता है
तड़प के मासूम जब रोता है।
उबल पड़ता है खून रगों का
खुलकर विरोध तब होता है

नारी का सम्मान जब खोता है
उसका अभिमान जब रोता है
दिलों का ज़ख्म हरा हो जाता
फूटकर  विरोध तब होता है।

राजा तानाशाह जब होता है
राजा लापरवाह जब होता है
प्रजा में असंतोष भर जाता
जमकर विरोध तब होता है।
©पंकज प्रियम

Wednesday, August 29, 2018

418.प्रकृति की पुकार

प्रकृति की पुकार

अरे! देखो मनुपुत्रों!
क्या क्या लेकर आई हूँ
जो दिया था,चुन लाई हूँ
वर्षों से पड़ी थी ये सारी
मेरे पास तुम्हारी अमानत
वही सौगात लौटाने आई हूँ।

ये बोतल,ये प्लास्टिक के थैले
अपने फिजूल की चीजों को
तुमने किया था जो मेरे हवाले
कितना घुट रहा था दम मेरा
वही जज़्बात बताने आई हूँ।

मैं हूँ धरा,जननी तुम्हारी
कैसे रखती चीजें ये सारी
मैं हूँ प्रकृति,नहीं मैं बेचारी
नहीं चाहिए दौलत तुम्हारी
दी है तुमने मुफ्त की बीमारी
वही सौगात लौटाने आई हूँ।

मैं प्रकृति,नहीं कुछ खाती
जो कुछ भी किसी से पाती
सौ गुणा से अधिक मैं लौटाती
देख लो कुछ भी नहीं मैंने रखा
किसी भी वस्तु को नहीं मैंने चखा
तुम्हारी हर चीज लौटाने आई हूँ।

है वक्त तू अब तो सम्भल जा
और कितनी सहेगी तेरी वसुधा
तुम्हारे ही कर्मो से आती विपदा
तेरा भी हश्र होगा पूछो न कैसा
धरती पे बिखरे कचरों के जैसा
तू कुछ भी नहीं प्रकृति के आगे
तुम्हें तुम्हारी औकात बताने आई हूँ
©पंकज प्रियम

416.माँ की गोदी

माँ

एक मीठी मुझको लेने दो
एक मीठी मुझको देने दो
तेरी गोदी में है सारा जहां
जी भर के मुझे सो लेने दो।

बचपन मुझे यूँ जी लेने दो
अपना ममत्व पी लेने दो
तुझे छोड़ के जाना कहाँ
छाँव आँचल की लेने दो।

ये वक्त कहाँ फिर आएगा
ये तख्त कहाँ मिल पाएगा
तेरे कदमों में ही जन्नत माँ
ये अक्स कहाँ खिल पाएगा।

दिल की बात कह लेने दो
सब जज़्बात कह लेने दो
मेरी बस यही हसरत माँ
अपनी सोहबत रह लेने दो।
©पंकज प्रियम

Wednesday, August 22, 2018

413.निःशब्द

दिन-बुधवार
तिथि-22/08/2018
विषय :नि:शब्द
विधा-अतुकांत कविता

भात भात कहते
जब कोई मासूम
भूख से तड़प तड़प
कर मर जाता है
तब सील जाते होंठ
लब निःशब्द हो जाता है।
फ़टी एड़ियों से
घिस घिसकर
पेट पीठ सटे
अंतड़ियों को
जब दिखलाता है।
सच कहूँ तब
लफ्ज़ निःशब्द हो जाता है।
द्रौपदियों का देख
रोज चीर हरण
भीष्म द्रोण खामोश
जब रह जाता है।
सच कहूँ तब
शब्द निःशब्द हो जाता है।
खुदा के घर पर
भी होते पापकर्म
हवस के जंजीरों में
सिसकते मासूमों का
देख कर दुष्कर्म
मर्म निःशब्द हो जाता है।
सरेआम स्त्रियों को
बीच राह करके नग्न
जब पुरुष मर्दानगी
अपनी दिखाता है।
खौल उठता है खून
लहू निःशब्द हो जाता है।
©पंकज प्रियम
गिरिडीह, झारखंड

412.आंखे

अपलक इंतजार करती है आँखे
बन्द पलक प्यार करती है आँखे।
कभी जुबाँ जो खामोश हो जाती
दिल की हर बात कहती है आँखे।

अपनों के लिए तरसती है आँखे
अश्कों को लिए बरसती है आंखे
जो प्रियतम से वो चार हो जाती
जुगनू सी लिए हरसती है आँखे।

दिलों तक राह बनाती है आंखे
इश्क़ की चाह जगाती है आंखे
नैनों से ही सारी बात हो जाती
प्रेम की आग लगाती है आँखे।

गहरे समंदर लहराती है आँखे
नीले अम्बर गहराती है आँखे
जब अपनों की याद है आती
चुपके से भर आती है आँखे।

खामोश भी कर जाती है आँखे
यूँ जोश भी भर जाती है आँखे
नशीले जाम जब है छलकाती 
मदहोश भी कर जाती है आँखे।
©पंकज प्रियम

411.आँखों में

आंखों में
कारी कजरारी तेरी आँखों में
मादकता भारी तेरी आँखों में
डूबता उतराता हूँ अंदर बाहर
अजब खुमारी तेरी आँखों में।

देखो न यूँ तुम मेरी आँखों मे
डूब जाता हूँ मैं तेरी आँखों में।
कैसे निकलूंगा डूबकर बाहर
गहरा समंदर है तेरी आँखों में.

देखो न यूँ तुम मेरी आँखों में
गिर जाता हूँ मैं तेरी बाँहो में
कैसे सम्भलूंगा इसको छूकर
अजब सा नशा तेरी आँखों में।

देखो न यूँ तुम मेरी आँखों में
गुजर जाता हूँ मैं तेरी राहों में
कैसे बचूँगा यूँ करीब आकर
कटार लहराता तेरी आँखों में।

देखो न यूँ तुम मेरी आँखों में
बहक जाता हूँ मैं तेरी बातों में
खिल जाऊंगा बनकर कमल
नीली झील सी तेरी आँखों में।
©पंकज प्रियम

Tuesday, August 21, 2018

411.मौत से क्या डरना

मौत से क्या डरना है

नाशवान शरीर हमारा
एक दिन इसको मरना है
आत्मा तो अमर हमारा
मौत से फिर क्या डरना है।
   
फल पे वश नहीं हमारा
बस कर्म हमें तो करना है
माटी का ये शरीर हमारा
माटी में ही तो विखरना है।

रह जाएगा नाम हमारा
कुछ ऐसा काम करना है
याद कर रोये जग सारा
सत्कर्मो से घड़ा भरना है।

गूंजेगा हर शब्द हमारा
सृजन कुछ ऐसा करना है
रहेगा हर वक्त हमारा
जीवन को ऐसा करना है।
©पंकज प्रियम

Sunday, August 19, 2018

409.कुछ कहना है

कुछ कहना है

ऐ कवि!अभी कहां तुझको मरना है
अभी तो बहुत कुछ तुझको करना है।

थोड़ी सी खुशियां बांटनी है तुझको
थोड़े बहुत गमों को भी तो हरना है।

लफ्ज़ों की करनी बाजीगरी तुझको
शब्दों से ही सब जख्मों को भरना है।

कहां रह गया है अपना तेरा जीवन
कविता सरिता सृजन वो झरना है।

जिंदगी का हरक्षण है तेरा समर्पण
मौत से फिर क्या तुझको डरना है।

द्रौपदियों के देख रोज चीर हरण
द्रोण-भीष्म सा चुप नहीं रहना है।

कुरुक्षेत्र का खुद को कृष्ण बनाना
देख अधर्म चुपचाप नहीं सहना है।

कभी आंखों को है ख़्वाब दिखाना
कभी आँसू बनके तुझको बहना है।

चुन चुन कर सबकुछ रखते जाना
जमाने को भी बहुत कुछ कहना है।

©पंकज प्रियम

Thursday, August 16, 2018

408.अटल अजातशत्रु

अजातशत्रु
रास्ता रोककर आज वो खड़ी हो गई
सच! जिंदगी से मौत तो बड़ी हो गई।
लड़ लेता जो दुश्मन कोई और होता
मौत तो गले लगाने को खड़ी हो गई।

न थका न रुका तू जीवन के सफर में
चलता ही रहा हमेशा सत्य के डगर में
एक वोट से गिर गयी सरकार तुम्हारी
लेकिन गिरा नही तू किसी के नज़र में।

बनके अजातशत्रु हमेशा तुम खड़े रहे
सियासी चक्रव्यूह में भी तुम अड़े रहे
बाधाएं आती रही,तुम्हें डगमगाती रही
लेकिन दुश्मन के सीने पर तुम चढ़े रहे।

आज मौत क्या जिंदगी से बड़ी हो गई
जो तुम्हारी राह रोक कर खड़ी हो गई
छुप गया सूरज,एक युग का अंत हुआ
डूबा सावन,यूँ आँखों की झड़ी हो गई।

पक्ष-विपक्ष,सबकी आंखों का तारा थे
लोकतंत्र के क्षितिज,एक ध्रुव तारा थे
अपने उसूलों पर हमेशा ही अटल रहे
साहित्य सरिता बहती अविरल धारा थे।

प्रखर कवि ओजस्वी दहाड़ती बोली थी
विरोधियों को सदा चित करती गोली थी
सौम्य हृदय नेता कुशल सदा सरल रहे
निश्छल निर्मल मुस्कान बड़ी भोली थी।
©पंकज प्रियम
श्रद्धेय श्री अटल बिहारी बाजपेयी जो  शत शत नमन 


Monday, August 13, 2018

407.प्रहार करो

प्रहार करो

अब तुम आर करो या पार करो
हर सीमा तुम अब तो पार करो।

सुनो ऐ सरहद के वीर जवानों
खुलकर अब तुम तो वार करो।

निकालो अब शमशीर जवानों
दुश्मनों का जमकर संहार करो।

आतंकी का सीना चीर जवानों
हृदय पर उनके तुम प्रहार करो।

नहीं देना उन्हें कश्मीर जवानों
नापाक इरादों का प्रतिकार करो।

खुद खींचो तुम तस्वीर जवानों
अखण्ड भारत का आकार करो।

लिखो भारत की तकदीर जवानों
देश का सपना तुम साकार करो।

तोड़ो बन्धन की जंजीर जवानों
भारत माँ की जय जयकार करो।

उठो!जागो!वतन के वीर जवानों
जय हिंद का अब तो हुँकार करो।

©पंकज प्रियम

406.हर हर महादेव


हर हर महादेव

जय भोले बम शंकर
सारे जग में तू ही तू
सुबह शाम हर पहर
नाम मैं तेरा ही भजूँ
हर हर महादेव शम्भू।

जो भी आता तेरे दर
उसका काम करे तू
गली गांव, हर डगर
तेरी ही माला मैं जपूं
  हर हर महादेव शम्भू।

सर्पों की माला पहन
शशि शीश चढ़ाया तू
गति गंगा कर सहन
धरती को बचाया तू
हर हर महादेव शम्भू।

जो खुली तीसरी नजर
सबको भस्म करे है तू
जो खुश हो जाये अगर
मांग सबकी भरे है तू।
हर हर महादेव शम्भू।

.पंकज प्रियम

Sunday, August 12, 2018

406.मेरा हाथ

मेरा हाथ

जिंदगी का ये कारवाँ
लेकर जाए चाहे जहाँ
दे मुहब्बत की सौगात
थाम लो तुम मेरा हाथ।

ढल रहा है सूरज यहाँ
जाना तुझको है कहाँ
हो जायेगी अब तो रात
थाम लो तुम मेरा हाथ।

गोधूलि की ये लालिमा
चढ़ना हमको आसमां
जाना मुझको तेरे साथ
थाम लो तुम मेरा हाथ।

सफर नहीं ये आसान
बहुत ऊँची है चढ़ान
सुन लो तुम मेरी बात
थाम लो तुम मेरा हाथ।

सुबह की भरो उड़ान
या शाम की हो ढलान
देना तुम तो मेरा साथ
थाम लो तुम मेरा हाथ।

©पंकज प्रियम

Thursday, August 9, 2018

404.बिंदिया

बिंदिया

सजी माथे तेरी बिंदिया
उड़ाती है मेरी निंदिया।
चमकते चाँद पे सूरज सी
दहकती है तेरी बिंदिया।

हया की आग है बिंदिया
प्रेम का अनुराग है बिंदिया
रूप का श्रृंगार ये करती
नारी का सुहाग है बिंदिया।

नारी की सम्मान है बिंदिया
नारी अभिमान है बिंदिया
जिससे ये प्यार है करती
उसकी पहचान है बिंदिया।

सुर्ख लाल तेरी बिंदिया
खूब कमाल तेरी बिंदिया
बहुत बैचेन मुझे करती
सजी भाल तेरी बिंदिया।
©पंकज प्रियम

403.शहीद

रोज सुनी सड़कों को ताकती
बूढ़ी मां की आँखे पथरायी है
घूंघट की आड़ से वो झांकती
बीवी की आँखे भी भर आई है।

बहना भी कब से है बैठी द्वार
राखी,कुमकुम सजाकर थाल।
बेसब्री से रोज हो रहा इंतजार,
कब आएगा इस घर का लाल।

सरहद से क्या सन्देशा आया
बस एक खबर को सब बेहाल
क्या युद्ध खत्म नहीं हो पाया
कब लौटेगा इस घर का लाल।

दुश्मन तो सारे वो मार गया
पर अपना जीवन हार गया
बहादुरी पर देश हुआ मुरीद
एक लाल फिर हुआ शहीद।

वर्षों बाद दीदार हो पाया है
कैसा सैलाब उमड़ आया है
क्या खूब परचम लहराया है
कफ़न पे तिरंगा फहराया है।
©पंकज प्रियम

Wednesday, August 8, 2018

402हिंडोला

झूम के आया सावन
बगिया लगा हिंडोला।
मौसम बड़ा मनभावन
सजा फूलों का झूला।

बरखा ले लाया सावन
झूम के मन है डोला
कहां बसे तुम साजन
आओ संग झूलें झूला।

आसमां में छाए बादल
पिहू पिहु पपीहा बोला
बरखा जो लाए बादल
प्रेम का रंग संग घोला।

मस्ती में सारी सखियां
झूला रही मुझे हिंडोला
मुझको है छेड़े सखियां
तेरे संग झुलूँ मैं झूला।

©पंकज प्रियम

401.मेंहदी


-मेंहदी
विधा -धनाक्षरी

हिना का देख कमाल
    हरे पत्तों का धमाल
     हाथों को करदे लाल
            नारी का श्रृंगार है।

लाल रंग है अंजाम
  हाथ रंगना है काम
    मेंहदी जिसका नाम
         सुहाग का प्यार है।

शील पे पिसता जाय
     खुद बिखरता हाय
         रंग निखरता जाय
               इसका संस्कार है।

      सखियां भी नाचे साथ
           मेंहदी रची जो हाथ
             आ जाओ तुम भी नाथ
                         मेंहदी त्यौहार है।
©पंकज प्रियम

Monday, August 6, 2018

399.प्रेम

प्रेम

प्रेम का ढाई आखर होता बहुत सुहाना
फिर जाने क्यूँ दुश्मन है इसका जमाना।
छोड़ के जहाँ को भी चाहे इसे अपनाना।
         फिर जाने .....
वो बदनशीब हैं,जिन्हें प्यार मिलता नहीं
वे खुशनशीब हैं,जिन्हें प्यार मिलता यहीं
इसके आगे सबको पड़ा है सर झुकाना
     फिर जाने क्यूँ ...
शाह ने मुमताज की खातिर ताज बनाया
लैला की चाह में मजनू ने पत्थर खाया
किस्मत से ही होता है दिल आशिकाना
  फिर जाने क्यूँ..
प्रेमी होते है खुदा के बन्दे कहते हैं ऐसा
हद से गुजर जाय जो इश्क होता है ऐसा
टूट जाये दिल मुश्किल फिर उसे बचाना
    फिर जाने ...
अपनी हसरतों को कब्र में करके दफ़न
चलते हैं मुहब्बत में बांध सर पे कफ़न
सबके बस में नहीं ये दरिया पार जाना
फिर जाने....
मुहब्बत से पीर बना,इसी ने रचा संसार
खुदा भी तरसता पाने को सच्चा प्यार
है दुनिया का सबसे अनमोल नजराना
फिर जाने ...

----------पंकज भूषण पाठक"प्रियम"

Monday, July 30, 2018

398.क्यूँ

क्यूँ???

दरिया नहीं ये आँखे,फिर क्यूँ भर आती है?
बदरी तो नहीं आँखे,फिर भी बरस जाती है।

कपड़े तो नहीं होंठ,फिर क्यूँ सिल जाता है?
दिमाग नहीं लोहा,मगर जंग लग जाता है।

खिलौना नहीं ये दिल,फिर क्यूँ टूट जाता है?
आत्मसम्मान नहीं देह,मगर चोट खाता है।

मौसम नहीं मनुष्य,फिर क्यूँ बदल जाता है?
वक्त नहीं आदमी,फिर भी गुजर जाता है।

©पंकज प्रियम

Thursday, July 26, 2018

395.दाग

दाग
कपड़ों के धुल जाते मगर
कहां धुलते दामन के दाग
ना साबुन,ना कोई सोडा,
ना मिटा सकता है झाग।

आंखों से तो दिखता नही
पर छपता सबके दिमाग।
लाख जतन चाहे कर लो
छुपता नहीं कभी ये दाग।

कठिन डगर है ये जीवन
पग रखना बड़ी संभाल।
थोड़ी सी जो चूक हुई तो
हो जाता है जीना मुहाल।

दुनिया काजल की कोठरी
हर कोने में जल रही आग
भूल से भी गर भूल हो गई
समझो कि लग गया दाग।

©पंकज प्रियम

Monday, July 23, 2018

394.श्रवण कुमार

त्रेतायुग का श्रवण कुमार
पितृभक्ति का था अवतार
मां बाप आंखों से लाचार
तीर्थ की इच्छा थी अपार।

मातु पिता की इच्छा जान
कुमार ने भी ली यह ठान
कांधे कांवर बिठाके चला
श्रवण कुमार बना महान।

बीच राह लगी जो प्यास
रोकी यात्रा नदी के पास
दसरथ का जो तीर लगा
टूट गयी श्रवण की सांस।

मात पिता ने छोड़े प्राण
श्रवण की मृत्यु को जान
दशरथ को भी श्राप मिला
पुत्र वियोग में दे दी जान।

अब ऐसा कोई सपूत कहां
कलयुग जन्मे कपूत यहां
माता पिता को रोता छोड़
अलग बसाता अपनी जहाँ।

मां बाप करते रहते पुकार
पास तो आ जाओ एकबार
बच्चे जाते सब रिश्ते तोड़
नहीं रहा जो श्रवण कुमार।

©पंकज भूषण पाठक"प्रियम"