क्यूँ???
दरिया नहीं ये आँखे,फिर क्यूँ भर आती है?
बदरी तो नहीं आँखे,फिर भी बरस जाती है।
कपड़े तो नहीं होंठ,फिर क्यूँ सिल जाता है?
दिमाग नहीं लोहा,मगर जंग लग जाता है।
खिलौना नहीं ये दिल,फिर क्यूँ टूट जाता है?
आत्मसम्मान नहीं देह,मगर चोट खाता है।
मौसम नहीं मनुष्य,फिर क्यूँ बदल जाता है?
वक्त नहीं आदमी,फिर भी गुजर जाता है।
©पंकज प्रियम
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