Sunday, December 16, 2018

481.सर्दी

सर्दी
अरि ओ सर्दी!
तू कितना और गिरेगी
कुछ तो लिहाज़ कर।
कटकटा रहे हैं दाँत मेरे
थरथरा रहे है हांथ मेरे।
नाक से बह रही गंगा-सी धारा
रजाई भी नहीं दे रही है सहारा।
खुद ही खुद से मैं सिमट रहा हूँ
दिनभर बिस्तर से लिपट रहा हूँ।
हाथ-पैर जो हैं सुन्न पड़े
इसलिए हैं अछून्न खड़े।
दो मुट्ठी बांधे जेब भरे
लब कहते हैं हरे-हरे।
तापमान पे कुछ कर कंट्रोल
कितना गिरेगा कुछ तो बोल।
ठंड से क्या तू खुद मरेगी
अरि और कितना गिरेगी?

©पंकज प्रियम
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