समंदर हूँ मैं लफ़्ज़ों का, मुझे खामोश रहने दो, छुपा है इश्क़ का दरिया, उसे खामोश बहने दो। नहीं मशहूर की चाहत, नहीं चाहूँ धनो दौलत- मुसाफ़िर अल्फ़ाज़ों का, मुझे खामोश चलने दो। ©पंकज प्रियम
धरती बंजर काला अम्बर घनघोर घटाएं उमड़ रही।
ठूंठ हुआ तन बुझा नहीं मन जड़ों से मिट्टी उखड़ रही।
जर्जर काया मौत का साया जिंदगी मानो उजड़ रही।
पत्तों के आस में साँसों के विश्वास में हररोज़ जिन्दगी यूँ बढ़ रही।
©पंकज प्रियम
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