Friday, December 21, 2018

487.मुस्कुराना सीखा है

* गज़ल
* काफ़िया - आना
* रदीफ़ - सीखा है
मुफ़लिसी में भी हमने मुस्कुराना सीखा है
अपने हर दर्द को दिल में छुपाना सीखा है।
गमों के साथ मेरी इस कदर गयी है दोस्ती
हर एक गम को सीने से लगाना सीखा है।
उल्फ़त की राह में चल पड़ी है ये जिंदगी
यादों में अपनी रात को जगाना सीखा है।
मुख्तसर-सी जिन्दगी मुहब्बत मेरी बन्दगी
मैंने जख्मों को लफ्ज़ों में बहाना सीखा है।
मौत का खौफ़ कहाँ दिखता तुझमें प्रियम
धड़कन को भी सांसों में नचाना सीखा है।
©पंकज प्रियम

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