समंदर हूँ मैं लफ़्ज़ों का, मुझे खामोश रहने दो, छुपा है इश्क़ का दरिया, उसे खामोश बहने दो। नहीं मशहूर की चाहत, नहीं चाहूँ धनो दौलत- मुसाफ़िर अल्फ़ाज़ों का, मुझे खामोश चलने दो। ©पंकज प्रियम
धरती बंजर काला अम्बर घनघोर घटाएं उमड़ रही।
ठूंठ हुआ तन बुझा नहीं मन जड़ों से मिट्टी उखड़ रही।
जर्जर काया मौत का साया जिंदगी मानो उजड़ रही।
पत्तों के आस में साँसों के विश्वास में हररोज़ जिन्दगी यूँ बढ़ रही।
©पंकज प्रियम
इतनी कम पंक्तियों में ज़िंदगी की थकान, उम्मीद और जिजीविषा को यूँ पकड़ लेना आसान नहीं होता। पूरी कविता में उदासी भी है, लेकिन उसके नीचे एक गहरी जीवन की ललक भी महसूस होती है। आपकी कविता में सच में शब्द कम और एहसास ज़्यादा हैं, सधे हुए और असरदार।
Post a Comment
1 comment:
इतनी कम पंक्तियों में ज़िंदगी की थकान, उम्मीद और जिजीविषा को यूँ पकड़ लेना आसान नहीं होता। पूरी कविता में उदासी भी है, लेकिन उसके नीचे एक गहरी जीवन की ललक भी महसूस होती है। आपकी कविता में सच में शब्द कम और एहसास ज़्यादा हैं, सधे हुए और असरदार।
Post a Comment