Sunday, December 30, 2018

497.ठूंठ जिन्दगी

धरती बंजर
काला अम्बर
घनघोर घटाएं
उमड़ रही।

ठूंठ हुआ तन
बुझा नहीं मन
जड़ों से मिट्टी
उखड़ रही।

जर्जर काया
मौत का साया
जिंदगी मानो
उजड़ रही।

पत्तों के आस में
साँसों के विश्वास में
हररोज़ जिन्दगी
यूँ बढ़ रही।

©पंकज प्रियम

1 comment:

Admin said...

इतनी कम पंक्तियों में ज़िंदगी की थकान, उम्मीद और जिजीविषा को यूँ पकड़ लेना आसान नहीं होता। पूरी कविता में उदासी भी है, लेकिन उसके नीचे एक गहरी जीवन की ललक भी महसूस होती है। आपकी कविता में सच में शब्द कम और एहसास ज़्यादा हैं, सधे हुए और असरदार।