Sunday, September 22, 2019

658. नज़र

ग़ज़ल/नज़र
122 122 122 12
मुहब्बत मुझे इस कदर हो गई,
कि रातें मेरी मुख़्तसर हो गई।

ख़यालों में उनकी जगा रात भर,
जरा आँख झपकी सहर हो गई।

नज़र जो खुली तो उन्हें ढूंढती,
न जाने नज़र से किधर हो गई।

सभी से छुपाया नज़र को मगर,
जमाने को कैसे ख़बर हो गई।

तुम्हारे ख़यालों हुआ यूँ असर,
कि मेरी ग़ज़ल बा-बहर हो गई।

मुहब्बत हुई जो मुझे आजकल,
नज़र भी नज़र की नज़र हो गई।

नज़र खोजती है जिसे चाहती है,
प्रियम की नज़र बेख़बर हो गई।

©पंकज प्रियम
22 सितम्बर 2019

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