साधु संतों के चुनाव लड़ने पर हाय तौबा क्यूँ?
कुछ साधु संतों की सियासत में इंट्री से लोगों में हायतौबा मची है। देश के टुकड़े करने और देश विरोधी नारे लगाने वाले तथाकथित क्रांतिकारी के पक्ष जो लोग गली-गली वोट देने की अपील कर रहे हैं वही लोग साधु-संतों को टिकट दिए जाने पर अपनी छाती पीट रहे हैं। अरे ,क्या हो जाएगा ? अगर वो संसद पहुंच गए। आतंकी और देशद्रोही विचारधारा वालों से तो बेहतर हैं। जिनके आगे पीछे भ्रस्टाचार करने का कोई कारण नहीं। किसके लिए कमाएंगे और चोरी करेंगे। बहुत पापी और अपराधी भर गए हैं संसद में उसको पवित्र करने और सद्ज्ञान के लिए कुछ साधु संतों का भी जाना आवश्यक है। जैसे खिलाड़ी,कलाकार,साहित्यकार, पत्रकार,व्यापारी, चोर,लफंगे,डाकू, क़ातिल, अपराधी, दुष्कर्मी, दक्षिणपंथी, वामपंथी,नक्सली और आतंकी जब संसद जा सकते हैं तो फिर साधु सन्यासी क्यूँ नहीं? आजम खान जैसे बदजुबान, महबूबा जैसी आतंक परस्त जैसे लोग जब संसद पहुंच सकते हैं तो फिर साधु संत क्यों नहीं? किसे संसद जाना है और नहीं ये तो वोट देकर जनता ही तय करती है। राजतन्त्र में भी राजाओं के दरबार में साधु संतों को मंत्री और सलाहकार बनाया जाता था। उनके ही कुशल रणनीति से राजा राज्य करता था। मौर्य काल में कौटिल्य चाणक्य हो, रामराज्य में महर्षि वशिष्ठ हों, महाभारत काल में कृपाचार्य सबों ने अपनी विद्वता से राजाओं को शक्ति प्रदान की। आज भी परोक्ष रूप से सभी बड़े नेताओं के सलाहकार विद्वान संतपुरुष ही है। जो चुपचाप नेपथ्य में रहकर नेताओं को राजनीति के गुर सिखाते रहते हैं। उनके बगैर किसी नेता का कोई अपना वजूद नहीं।
अब बात जरा साध्वी प्रज्ञा ठाकुर के उस बयान की कर ली जाय जिसमें उन्होंने शहीद हेमन्त करकरे को श्राप देने की बात कही जिसपर पूरे देश मे हाय तौबा मची है लेकिन जिस कन्हैया ने देश की सेना को रेपिस्ट कहकर अपमान किया उसके लिए तमाम तथाकथित बुद्धिजीवी, स्वयम्भू पत्रकार गली-गली प्रचार कर रहे हैं क्योंकि वो देश के प्रधानमंत्री को गाली देता है देश के संविधान को नहीं मानता। प्रज्ञा ठाकुर ने भी गलत वक्त में गलत बयान दिया लेकिन यह उनकी पीड़ा थी जो फुटकर बाहर निकल पड़ी होगी। अब वह कितनी दोषी है यह साबित करना कानून का काम है जिसे सब को स्वतंत्र रूप से करने देना चाहिए। शायद प्रज्ञा ने जो कहा वो अपनी पीड़ा में कहा और इसके लिए उसने माफ़ी भी मांग ली जैसे कि चौकीदार चोर के मामले में राहुल गाँधी ने मांगी। न तो मैं प्रज्ञा का समर्थन नहीं करता और न ही करकरे की शहादत के अपमान की बात का। उन्हें उनकी वीरता का सर्वोच्च सम्मान मिला है और हमारी पूरी श्रद्धा उनके परिवार के साथ है। इसका ये मतलब नहीं कि जो सच है उसको आँख मूंदकर भरोसा कर लिया जाय। भगवान होने के बावजूद श्री राम को सीता के त्याग के लिए क्षमा नहीं किया गया। ये सामान्य सी बात होती है कि जो आपको असहनीय पीड़ा दे उसके प्रति अपशब्द निकल ही जाते हैं। हम आप कोई भी हो अगर किसी की वजह से कष्ट मिलता है तो उसे गाली अवश्य देते हैं चाहे वो कितना भी महान क्यूँ न हो। अगर आप या हम भी प्रज्ञा की जगह होते और उतने कष्ट मिले होते तो सौ फीसदी गारण्टी के साथ कहता हूं कि आपके और हमारे भी भी वही शब्द होते। यह एक सामान्य तौर पर न्यूटन के नियमानुसार एक क्रिया के बदले प्रतिक्रिया है जो हर किसी के मन हो जाती है। आदमी को अगर कष्ट हो जाता है तो ईश्वर को भी बुरा भला कह देता है। सीता की अग्नि परीक्षा और वनवास के लिए लोग आज भी भगवान राम को दोषी मानते हैं।
©पंकज प्रियम
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