घूँघट की आड़ में.....बुर्क़ा!
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--------पंकज भूषण पाठक
जावेद अख़्तर साहब ! माना कि आप एक बड़े शायर हैं लेकिन कलाकार होने के बावजूद हमेशा से हिन्दू धर्म और उसकी संस्कृति के खिलाफ ज़हर उगलते रहे हैं ।कभी अपनी कुप्रथाओं पर कुछ कहने की हिम्मत नहीं जुटा सकते। अधिकांश देशों द्वारा बुर्क़े पर प्रतिबंध लगाए जाने का हवाला देते हुए शिवसेना ने भारत में भी इसपर रोक लगाने की मांग की तो जनाब अख़्तर साहब ने एकबार फिर घुँघट की आड़ में हिन्दुओ पर हमला बोल दिया। जैसा कि उम्मीद थी उनकी हां में हाँ मिलाने को ओबैसी भी आगे आ गए। जिनलोगों ने ट्रिपल तलाक,हलाला और बुर्क़ा प्रथा पर कभी जुबाँ नहीं खोली वे घुँघट पे सवाल करने लगे। आपको पता होना चाहिए कि प्राचीन भारतवर्ष में घूंघट की प्रथा नहीं थी। हमारी देवियां हो, रानी-महारानी हो, ऋषि-पत्नी हो या फिर साधारण स्त्रियां सभी बड़े सम्मान और स्वाभिमान के साथ पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलती थी। जब से इस पावन धरती पर विदेशी दुष्ट-दुराचारियों का प्रवेश हुआ और उनकी बुरी नज़र औरतों पर पड़ने लगी तब से स्त्रियों ने अपनी अस्मत बचाने के लिए घूंघट का सहारा लिया। हिंदुओं में घुँघट कई प्रथा उन्ही इलाको में अधिक देखी जाती है जहाँ मुस्लिमों ने आक्रमण किया था।
हिन्दुओं में पर्दा प्रथा इसलाम की ही देन है। इस्लाम के प्रभाव से तथा इस्लामी आक्रमण के समय से दुराचारियों से बचाव के लिये हिन्दू स्त्रियाँ भी पर्दा करने लगीं। इस प्रथा ने मुग़ल शासन के दौरान अपनी जड़ें काफी मज़बूत की। भारत के संदर्भ में ईसा से 500 वर्ष पूर्व रचित 'निरुक्त' में इस तरह की प्रथा का वर्णन कहीं नहीं मिलता। निरुक्तों में संपत्ति संबंधी मामले निपटाने के लिए न्यायालयों में स्त्रियों के आने जाने का उल्लेख मिलता है। न्यायालयों में उनकी उपस्थिति के लिए किसी पर्दा व्यवस्था का विवरण ईसा से 200 वर्ष पूर्व तक नहीं मिलता। इस काल के पूर्व के प्राचीन वेदों तथा संहिताओं में भी पर्दा प्रथा का विवरण नहीं मिलता। प्राचीन ऋग्वेद काल में लोगों को विवाह के समय कन्या की ओर देखने को कहा है- इसके लिए ऋग्वेद में मंत्र भी है जिसका सार है कि "यह कन्या मंगलमय है, एकत्र हो और इसे देखो, इसे आशीष देकर ही तुम लोग अपने घर जा सकते हो।" वहीं'आश्वलायनगृह्यसूत्र' के अनुसार दुल्हन को अपने घर ले आते समय दूल्हे को चाहिए कि वह प्रत्येक ठहराव पर दर्शकों को दिखाए और उसे बड़ों का आशीर्वाद प्राप्त हो तथा छोटों का स्नेह। इससे स्पष्ट है कि उन दिनों वधुओं द्वारा पर्दा धारण नहीं किया जाता था, बल्कि वे सभी के समक्ष खुले सिर से ही आती थीं। पर्दा प्रथा का उल्लेख सबसे पहले मुगलों के भारत में आक्रमण के समय से होता हुआ दिखाई देता है। आज में उन्हीं इलाकों में यह प्रथा है जहाँ सर्वाधिक आक्रमण हुए।
सीता हो या मंदोदरी, कुंती हो या दौपदी 'रामायण' और 'महाभारत' काल में स्त्रियां किसी भी स्थान पर पर्दा अथवा घूंघट का प्रयोग नहीं करती थीं। अजंता और सांची की कलाकृतियों में भी स्त्रियों को बिना घूंघट दिखाया गया है। मनु और याज्ञवल्क्य ने स्त्रियों की जीवन शैली के संबंध में कई नियम बनाए हुए हैं, परंतु कहीं भी यह नहीं कहा है कि स्त्रियों को पर्दे में रहना चाहिए। ज्यादातर संस्कृत नाटकों में भी पर्दे का उल्लेख नहीं है। यहां तक कि 10वीं शताब्दी के प्रारंभ काल के समय तक भी भारतीय राज परिवारों की स्त्रियां बिना पर्दे के सभा में तथा घर से बाहर भ्रमण करती थीं, यह वर्णन स्वयं एक अरब यात्री अबू जैद ने अपने लेखन के जरिए किया है। स्पष्ट है कि भारत में प्राचीन समय में कोई पर्दाप्रथा जैसी बिमार रूढ़ी प्रचलन में नहीं थी।
आज घुँघट का जो स्वरूप देखने को मिलता है वह सिर्फ पल्लू के रूप में सर के ऊपर साड़ी या दुपट्टा होता है। यह एक तरह से बड़े बुजुर्गों के सम्मान हेतु औरतें प्रयोग करती हैं। लेकिन यह उनकी इच्छा पर निर्भर है कहीं भी जोर जबर्दस्ती नहीं कि जाती। वहीं मुस्लिम समाज में बुर्क़ा अनिवार्य रूप से देखने को मिलता है। पूरे शरीर को काले कपड़ों में ढंक लेने का परिधान बुर्क़ा है। चिलचिलाती गर्मी में भी काले बुर्के में महिलाओं को रहने की तकलीफ़ जरा उन्हीं से पूछनी चाहिए
सभी धर्मों को अपनी संस्कृति और संस्कार को बनाये रखने की आज़ादी से भारत से अधिक कहीं नहीं है। बुर्के पर प्रतिबन्ध दूसरे मुल्कों में है उसके खिलाफ क्यों नहीं आवाज़ निकलती है? इन बेतुके मसलों में पड़ने की वजाय देशहित में कार्य करने चाहिए न कि दुश्मनों को परोक्ष रूप से मदद करते रहें।
वहीं मुस्लिम समाज में बुर्क़ा अनिवार्य रूप से देखा जाता है । हालिया कई आतंकी घटनाओं में बुर्क़ा का आत्मघाती हमलों में इस्तेमाल तथा उसका अपराधियों द्वारा स्वयं को छुपाने के उपकरण के रूप में प्रयोग करने की घटनाओं के बाद उसके सार्वजनिक स्थलों में प्रयोग पर गंभीर विवाद खड़ा हो गया। इसके पश्चात अनेक इसाई बहुल पश्चिमी देशों ने सार्वजनिक स्थलों पर बुरका पहनने को प्रतिबंधित कर दिया गया। आतंकी खतरा के मद्देनजर फ्रांस, अमेरिका, श्रीलंका, चीन जैसे मुल्कों में बुरका समेत कई चीजों पर प्रतिबंध लगा दिया गया है तो भारत में भी शिवसेना ने बुर्के पर प्रतिबंध की मांग कर दी है। हालांकि इसे सही नहीं ठहराया जा सकता क्योंकि हर बुर्के के पीछे बम नहीं हो सकता लेकिन हालिया घटनाओं ने लोगों को सोचने पर मजबूर कर दिया है। माना कि आतंक का कोई धर्म नहीं होता लेकिन हर आतंकी किसी खास धर्म का ही क्यूँ निकलता है? अगर आतंक का धर्म नहीं होता तो फिर हिन्दू आतंक या भगवा आतंक का प्रचार क्यूँ किया गया?
न्यूजीलैंड की घटना में एक ईसाई ने मुस्लिमों को निशाना बनाया उसका न्यूजीलैंड सहित पूरे विश्व में निंदा हुई। भारत में भी लोग सड़कों पर उतर आए लेकिन अभी श्रीलंका में ईसाई समुदाय को निशाना बनाकर इस्लामी आतंकियों ने 360 से अधिक निर्दोष मासूमों की निर्मम हत्या कर दी तो सभी की जुबान पर ताला क्यूँ लटक गया? आतंकवाद पे यह दोगलापन क्यूँ?
आज जब भारत की सफल कूटनीति के कारण मसूद अजहर को ग्लोबल आतंकी घोषित कर दिया गया तो इसको लेकर गन्दी सियासत शुरू हो गयी। लोग 1999 की घटना को याद करने लगे कि तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी ने इसी आतंकी को रिहा कर दिया था। लेकिन तब की घटना पर विपक्ष,मीडिया और तमाम बुद्धिजीवी की भूमिका पर कोई सवाल नहीं खड़े करता। जब प्लेन हाइजेक हुआ तो उसमें सवार यात्रियों की सकुशल वापसी को लेकर देशभर में लोग सड़कों पर उतर आए। सोनिया गाँधी समेत तमाम विपक्षी नेता धरने पर बैठ गए और सरकार पर दबाव बनाने लगे। मीडिया और बुद्धिजीवियों की बड़ी जमात भी आतंकियों की बात मानने का दबाव बढ़ाने लगे। तब जाकर सरकार ने यह निर्णय लिया।
क्या एक आतंकी के बदले सैकडों जान की कुर्बानी दी देते? कोई भी सरकार होती तो शायद यही करती। हमारी सबसे बड़ी कमजोरी तो हमारा अंधा कानून और लचर संविधान है जो आतंकियों को पकड़ कर भी उसे वर्षों तक जेल में रखने को मजबूर करती है। अगर गिरफ्तारी के साथ ही मसूद को मार दिया जाता तो यह नौबत ही नहीं आती। याद कीजिये आतंकी अफ़ज़ल गुरु के लिए कुछ लोगों ने किस तरह आधी रात को अदालत खुलवा दिया। इससे शर्मनाक क्या हो सकती है कि जहां एक व्यक्ति को न्याय के लिए कोर्ट का चक्कर लगाते उम्र गुजर जाती है लेकिन आतंकी के लिए बड़े बड़े वकील आधी रात को कोर्ट खुलवा देते हैं। यही हमारी कमजोरी है। आस्तीनों में इतने साँप फैन फैलाकर बैठे हैं कि आतंकियों को उनकी सह मिल जाती है। देश में गद्दारों के ही कारण पड़ोसी दुश्मन को ताकत मिलती है।
अब जरूरत है कि ऐसे लोगों को चिन्हित कर खत्म करने की और आतंकवाद के खिलाफ कठोर कदम उठाने की ताकि कोई भारत की ओर आँख उठाकर देखने की जुर्रत न करे।
3 comments:
" जब से इस पावन धरती पर विदेशी दुष्ट-दुराचारियों का प्रवेश हुआ और उनकी बुरी नज़र औरतों पर पड़ने लगी तब से स्त्रियों ने अपनी अस्मत बचाने के लिए घूंघट का सहारा लिया।"बिलकुल सही पंकज जी ,बड़ा उन्दा ,सटीक और शोधपरक आलेख हैं आप का ,हर पहलु विचारणीय हैं ,सादर नमस्कार आप को
जी नमस्ते,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (05-05-2019) को
"माँ कवच की तरह " (चर्चा अंक-3326) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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अनीता सैनी
विचारोत्तेजक लेख
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