Sunday, May 5, 2019

562. आतंक के आँसू

(मेरी इस कविता के प्रकाशन पर दो दिन पूर्व फेसबुक ने रोक लगा दी थी। रिपोर्ट करने पर आज प्रकाशित हुई।आख़िर गलत क्या पूछा है मैंने? आप ही दें जवाब। इस तस्वीर को देखकर मैं रात भर सो नहीं पाया , क्योंकि मुझमें संवेदना है जिंदा)

आतंक और दो बूंद आँसू

उफ़्फ़!!
क्या लिखूँ....?
कैसे लिखूँ....?
इस अबोध की भाँति आज
कलम हमारी थम गयी।
देखकर यह तस्वीर
रातभर मैं सो नहीं पाया
आँखों से आँसू रोक न पाया
क्योंकि मेरा जमीर है जिंदा
मेरी भवनाएं संवेदना है जिंदा
कौन होगा ?
जो यह दृश्य देख न रोया होगा
क्या गुनाह था इसका?
जो यूँ खामोश कर किया
मां-बाप के संग यह भी गयी थी ईश्वर के दर
कहते बच्चे ईश्वर का रूप होते हैं
तो फिर क्या ईश्वर ने ही ले ली अपनी जान

कुछ सवाल प्रभु ईशा मसीह से
,गॉड या जीसस
क्या तू भी नहीं रोया जीसस? देख यह मंज़र
तुझे भी तो आततायियों ने लटकाया था शूली पर
उसी दर्द को जरा महसूस कर लेते
कम से कम इस मासूमियत की जान बख्स देते!
क्या यही फल है तुम्हारे प्रेयर का?

और कुछ सवाल ख़ुदा से
या अल्लाह !
या ख़ुदा क्या कहूँ तुझको
क्या मर गया ज़मीर तेरा भी?
जो तुम्हारे नाम पर सब कर रहे जिहाद
क्या यही है जिहाद?
ऊँचे -ऊँचे मस्जिदों में लगे भौंपू से
क्या इसीलिए तुझे रोज सब देते अजान
की आँख मूंद लो, जान कर भी बनो अनजान!
तुम्हारे नाम पर जो जिहादी तैयार होते हैं।
क्यूँ बन जाता है आत्मघाती बम
एक सोलह -सत्रह साल का जवान?
क्योंकि तुम्हारे नाम पर
उन्हें दिखाया जाता है ख़्वाब!
जन्नत और 72 हूरों का!
क्या निर्दोष और मासूमों की बलि लेकर
तुम देते हों उन्हें जन्नत नसीब?
और कितनी हूरें है तेरे घर
जो हर जिहादी को तुम देते हो उपहार!
कहते हैं आतंक का कोई धर्म नहीं होता
मज़हब नहीं सिखाता आपस में वैर करना
तो फिर क्यूँ सारे आतंकी होते हैं
अबतक जितने आतंकी निकले
सबका क्यों एक धर्म मज़हब जान।
मौत की नींद सो रही इस अबोध को देखो
तुम्हारा दिल नहीं कचोटता होगा
जब हैं सारे तुम्हारी ही संतान?

और कुछ सवाल,
कथित मानवाधिकारी
बुद्धिजीवी और फिल्मी कलाकार से
क्या सूख गया तुम्हारे आँखों का सारा पानी?
आतंकियों की पैरवी करने तुम सारे
पहुंच जाते हो आधी रात को कोर्ट
आतंकियो की मौत पर करते हो सेना पर चोट!
उनके लिए हमेशा रहते रुदन पसार
डर लगने लगता है तुम्हें हिंदुस्तान में!
नासिर,शाहरुख़ या आमिर
क्या आज मर गया तेरा ज़मीर?
आज गुस्सा नहीं आया तुम्हें नासिर?
इस मासूम चेहरे को देख दर्द नहीं हुआ हामिद?
जब होती है आतंक पे कार्रवाई तो
दिखने लगता है यहाँ असहिष्णुता
और करने लगते हो वापस अवार्ड!
आज इस दृश्य पे वो सारे क्यूँ है खामोश
क्या आज नहीं है उन्हें कोई होश?
न्यूजीलैंड में एक पीड़ित सरफिरे ने
जब  लिया आतंकवाद का बदला !
तो सब छाती पीटने लगे ।

और आख़िर में
बात-बात पर
अपनी स्क्रीन ब्लैक करने वाले पत्रकार
आज क्यूँ है तुम्हारी स्क्रीन सफ़ेद?
अरे! शर्म करो सब,
ये आतंकवाद है,ये किसी के हमदर्द नहीं
क्या भारत,क्या अमरीका,क्या सीरिया क्या श्रीलंका?
सब को ले चुका अपनी चपेट में
कल हिन्दू, आज क्रिश्चन, कल सिक्ख और फिर मुस्लिम!
न तो अमन पसन्द है और न चमन पसन्द है।
ये किसी के नहीं हैं इन्हें बस खून पसन्द है।
लाशों की ढेर पसन्द है।
कर देगा इस जहाँ को बर्बाद
क्यूंकि ये है आतंकवाद!

और क्या कहूँ?
क्या करूँ मैं सवाल!
कौन दे सकता है भला
इन प्रश्नों का सटीक जवाब?
है आपके पास?
नहीं तो फिर मानवता के लिए ही सही
इस मासूम में अपने प्रिय का अक्स देखकर
श्रद्धा के दो बूंद आँसू जरूर दें।
और भर ले एक आग हृदय में
संकल्प ले आतंकवाद के खात्मे का
यही इसकी श्रद्धांजलि होगी।

©पंकज प्रियम

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