अगर गुस्सा तुम्हें आता, कभी क्या घर जलाते हो?
अगर मतभेद हो घर में, कभी क्या सर लड़ाते हो?
नहीं नुकसान कुछ करते, समझते घर हो अपना-
तो क्या ये घर नहीं तेरा? जो तुम पत्थर चलाते है।।
समझते जो अगर घर तो, कभी ये काम न करते,
अगर होती मुहब्बत तो, कभी बदनाम न करते।
जलाता देश को जो है, नहीं वह देश का होता-
अगर तुम नागरिक होते, यूँ कत्लेआम न करते।
©पंकज प्रियम
1 comment:
आपकी ये कविता बहुत सीधे सवाल उठाती है, और यही इसकी ताकत है। आपने गुस्से और हिंसा को घर के उदाहरण से जोड़कर बात को बहुत साफ कर दिया। मैं पढ़ते हुए बार-बार यही सोचता रहा कि सच में अगर हम किसी जगह को अपना मानते हैं, तो हम उसे तोड़ते क्यों हैं?
Post a Comment