फाँसी बनाम प्रदूषण!
निर्भया बलात्कार और हत्या मामले के एक आरोपी ने याचिका दायर कर फाँसी की सज़ा पर पुनर्विचार करने का अनुरोध किया है। उसकी तरफ वकील की बेहद घटिया दलील सुन रहा था। बड़ी बेशर्मी से वह एक बलात्कारी और हत्यारे को बचाने के लिए कहता है कि दिल्ली में प्रदूषण का स्तर बढ़ गया है अतः मेरे मुवक्किल को फाँसी न दी जाय। मतलब हद है चूतियापे की, साले पैसों के लिए अपनी बहन बेटी को भी बेच दोगे। निर्भया की जगह अगर उसकी अपनी बेटी होती तब भी क्या वह वकील दाँत निपोरते हुए यह बात कहता? प्रदूषण और फाँसी में भला तारतम्य? प्रदूषण से तो तुम भी मर जाओगे तो फिर एक बलात्कारी के लिए क्यों केस लड़ रहे हो? इतने पैसे लेकर क्या करोगे?
प्रदूषण से केवल तुम्हारे मुवक्किल की उमर कम नहीं हो रही है बल्कि तुम्हारी भी तो हो रही है तो फिर काहे की मोहमाया। जाओ भजन कीर्तन करो जिससे भव सागर पार कर सको। वैसे भी बलात्कारियों का पक्ष लेकर इतने पाप कर चुके हो कि नरक में भी जगह मिलनी मुश्किल है। मैंने इसे कई पापियों को मरते वक्त महीनों तक पड़ा देखा है जिसके शरीर में कीड़े पड़ जाते हैं। वास्तव में वही नरक है।
जरा निर्भया की उस पीड़ा को तो समझ लेते की किस दर्द से गुजरी होगी जब इन दरिंदो ने उसका गैंगरेप करने के बाद गुप्तांग में हाथ और सरिया डालकर आँत तक बाहर निकाल ली थी। जिसने सरिया डाला वह फिरोज तो नाबालिक होने का नाजायज फायदा उठा कर बाल सुधार गृह में मुफ्त की रोटियां खा रहा है। जो लड़का बलात्कार कर सकता है! गुप्तांग में लोहे का रॉड घुसेड़ सकता है!, वह किस नज़र से नाबालिक है ? वह तो आदमी कहलाने के भी लायक नहीं बल्कि हैवान है जिसका कोई मानवाधिकार नहीं होना चाहिए। चूंकि वह अल्पसंख्यक है इसलिये कोर्ट के साथ-साथ छद्म सेक्युलरों ने भी उसकव बचाने में जोर आजमाइश लगा दी। सबसे पहली फाँसी तो उसे ही देनी चाहिए।
ऐसे ही वकीलों के कारण अपराधियों के हौसले बुलंद होते हैं। अगर उन्नाव के आरोपियों को जमानत नहीं मिलती तो पीड़ित आज जीवित होती। ऐसे वकील पैसों कर लिए आतंकवादियो का भी केस लड़ने को तैयार हो जाते हैं। उसके लिए आधी रात को भी कोर्ट खुलवा देते हैं। धिक्कार है ऐसे वकीलों पर और जजों पर जो आम जनता को तो वर्षो तक तारीख़ पे तारीख के चक्कर घिन्नी में घुमाते रहते हैं लेकिन आतंकवादियों को बचाने के लिए आधी रात भी कोर्ट खोल कर बैठ जाते हैं।
अब जबकि दया याचिका ख़ारिज हो चुकी और यह बिल्कुल तय है कि चारो आरोपियो को फाँसी होगी तो उसे बचाने की फिर बेजा कोशिश शुरू हो गयी है। जब सुप्रीम कोर्ट ने फाँसी की सजा सुना दी और दया याचिका खारिज हो तब फिर ये कोशिश सिर्फ मामले को लटकाने की है। हमारे लचर संविधान और न्यायिक प्रक्रिया के इन्ही दोषों के कारण कड़े कानून होने के बावजूद भी अपराध थमने का नाम नहीं लेता। क्योंकि उन्हें पता है कि बचना आसान है जबतक चंद पैसों में खुद को बेचने वाले लोग न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका में विराजमान हैं।
© पंकज प्रियम
No comments:
Post a Comment