संग धारा बहने से मंजिल नहीं मिलती
तन्हाई में कभी महफ़िल नहीं मिलती।
पाना हो गर मंजिल तो विपरीत चलो
तन्हाइयों से निकल करता प्रीत चलो।
धारा तो अपने संग बहा ले जाती है
खुद की भी अस्मत लूटा ले जाती है।
औरों की खातिर तुम सूरज सा जलो
तन्हाई में भी कभी न तन्हा तुम चलो।
मुफलिसी में भी तुम मुस्कुराते चलो
भीड़ में भी गुमनाम,पहचान न भूलो।
फूल ही नहीं कांटो में भी चल पाता है
दर्द आँसू पीकर भी जो मुस्कुराता है।
भीड़ में भी अलग पहचान रखता है
दुनिया उसका ही तो सम्मान करता है।
-पंकज प्रियम
समंदर हूँ मैं लफ़्ज़ों का, मुझे खामोश रहने दो, छुपा है इश्क़ का दरिया, उसे खामोश बहने दो। नहीं मशहूर की चाहत, नहीं चाहूँ धनो दौलत- मुसाफ़िर अल्फ़ाज़ों का, मुझे खामोश चलने दो। ©पंकज प्रियम
Tuesday, March 27, 2018
तन्हाई
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