Saturday, May 26, 2018

353.जेठ की तपिश

जेठ की तपिश

झुलसी है धरती सारी
झुलसा सारा आसमां
जेठ की तपन में देख
,झुलसा ये सारा जहां।

आग के शोले बरस रहे
बूंद बूँद लोग तरस रहे
धरती कैसी धधक रही
शोलों सा ये दहक रही।

सांय सांय करती हवा
छांव ही बस देती दवा
दूर दूर अब पेड़ नहीं
कैसी गर्म बहती हवा।

तपिश जेठ से आस है
मन का ये एहसास है
तपती धरती से ही तो
बारिश का विश्वास है।
©पंकज प्रियम

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