बीत गए सौ साल मगर उस मंज़र की आग धधकती है।जलियांवाला बाग में वतन की खुशबू आज महकती है।
जुल्म की दास्तां गहरी इतनी,अब भी दीवारें सब कहती है। ब्रिटिश हुकूमत की फ़ितरत,अब भी सियासत में बसती है।
दमनकारी नीतियों के ही विरुद्ध तो भीड़ उमड़के आई थी। किस निर्दयता से निहत्थों पर तुमने गोलियां चलवाई थी।
क्या हिन्दू,क्या मुस्लिम,सबने तब मिलकर गोली खायी थी, वतन पे मर मिटने की,हर दिल ने मिलकर कसमें खायी थी।
आज़ादी के मतवालों की चिताएं आज भी दिल में जलती है।
जालियांवाला बाग की दीवारों में, शहादती लहू ही बहती है।©पंकज प्रियम
जलियांवाला बाग की 101 वीं बरसी पर नमन है वतन पे मर मिटने वालों को। 13 अप्रैल 1919
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