बचपन के किस्से
हवा के संग सरसराते ,हरे पत्तों ने यूँ गीत गाए
जो गुजरे थे बचपन के लम्हें वो लौट के आये।
गुजरती उम्र दरख़्तों के,कहती सारी फिजाएं
बुलाती मुझे लेने आगोश में,वो यूँ बाहें फैलाये।
महुआ के मदहोश करते, फूल मद्धम से गुच्छे
आम के पेड़ से लटकते, टिकोले आम कच्चे
ये जामुन के पेड़ पर, जो हमने बचपन गुजारे
कितने हसीं थे वो पलछिन, बचपन के अच्छे।
शहर की चकाचौंध से कभी जो यूँ निकल के
बड़ा सुकून मिलता है,हरबार इनसे यूँ मिलके
जर्रे जर्रे में जिंदा है,मेरे बचपन के सारे किस्से
डुब्बा ने भी जता दी खुशी,फिजां में खिल के।
इन्ही हवाओं ने था कभी,मेरा अरमान छेड़ा
इन्ही फिजाओं में था मैंने यूँ अल्फ़ाज़ छेड़ा
अल्फ़ाज़ों के सफ़र में इस कदर जा निकला
लफ़्ज़ों ने मुझको,कभी शब्दों को हमने छेड़ा।
©पंकज प्रियम
@डुब्बा,बसखारो, गिरिडीह
हवा के संग सरसराते ,हरे पत्तों ने यूँ गीत गाए
जो गुजरे थे बचपन के लम्हें वो लौट के आये।
गुजरती उम्र दरख़्तों के,कहती सारी फिजाएं
बुलाती मुझे लेने आगोश में,वो यूँ बाहें फैलाये।
महुआ के मदहोश करते, फूल मद्धम से गुच्छे
आम के पेड़ से लटकते, टिकोले आम कच्चे
ये जामुन के पेड़ पर, जो हमने बचपन गुजारे
कितने हसीं थे वो पलछिन, बचपन के अच्छे।
शहर की चकाचौंध से कभी जो यूँ निकल के
बड़ा सुकून मिलता है,हरबार इनसे यूँ मिलके
जर्रे जर्रे में जिंदा है,मेरे बचपन के सारे किस्से
डुब्बा ने भी जता दी खुशी,फिजां में खिल के।
इन्ही हवाओं ने था कभी,मेरा अरमान छेड़ा
इन्ही फिजाओं में था मैंने यूँ अल्फ़ाज़ छेड़ा
अल्फ़ाज़ों के सफ़र में इस कदर जा निकला
लफ़्ज़ों ने मुझको,कभी शब्दों को हमने छेड़ा।
©पंकज प्रियम
@डुब्बा,बसखारो, गिरिडीह
No comments:
Post a Comment