Monday, April 16, 2018

मांस का टुकड़ा

मांस का टुकड़ा

मां!
तूने क्यूँ?
मुझे जन्मा?
छोड़ देती
कोख में ही
मुझे अजन्मा!
तब तो  सिर्फ थी
एक मांस का टुकड़ा
नहीं होता न मुझे दर्द इतना
न कटता तेरे जिगर का टुकड़ा।
मेरे संग तुझे भी दर्द हुआ कितना
संग संग रोई पूरी दुनियां।
ठीक ही तो तब
कह रहे थे लोग- बाग
बेटी है,करा लो गर्भपात
क्या करेगी बेटी को जन्मा?
जन्मते ही सुना तुमने ताना।
पल पल बढ़ती बेटी
के संग संग बढ़ती चिन्ता।
देर सबेर घर बाहर होती चिन्ता।
अभी तो लड़की पूरी तरह
बनी भी नहीं,बच्ची ही तो हूँ मैं!
फिर भी क्यूँ लोग मुझे यूँ देखता?
सहज बालमन
नहीं दुनिया की समझ
अंकल ही तो कहती थी उसे
एक चॉकलेट देकर मुझे खा गया
मत पूछ मां
कुत्तों से सबने नोचा कैसा
कहां? कहां?कितना दर्द हुआ!
क्या मिल गया उन्हें?
नोचकर मुझे,कितना दर्द हुआ
क्या मैं ?
एक मांस का थी टुकड़ा?
फाड़ डाले तन, क्या थी कपड़ा!
मैं मर जाती
तेरी कोख में ही ,ओ मां!
देखती तो नही वीभत्स दुनियां।
तुझे भी तो नहीं रहती मेरी चिंता।
मेरी बढ़ाई, मेरी पढ़ाई,
और फिर मेरी शादी की चिंता।
बोझ तो नहीं समझी जाती
मार देती मां
कोख में ही तो होता अच्छा!
किसे,किसपे ?करती भरोसा
सब की नजर होती, मेरे जिस्मों पर
लोग तंज कसते हैं मेरे वस्त्रों पर
पांच वर्ष में कैसे पहनूं साड़ी मां?
तू तो पहनती है न साड़ी मां!
तब भी सबने ,तेरा भी तन ही देखा
जब पल्लू से ढंक ,तूने पिलाई ममता।
क्या करूंगी मैं ?
बनकर किसी की माता।
मुझे भी तो होगी तब ,
मेरी बेटी की हरपल चिंता।
नहीं बनना बीबी,
नहीं बनना मुझे मां।
सच में
मां!
©पंकज प्रियम
16.4.2018

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