Tuesday, April 10, 2018

रामगढ़ की बसन्ती

लघुकथा
रामगढ़ की बसन्ती
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रात के करीब साढ़े नौ बज रहे थे,गाड़ी रामगढ़ पँहुची थी कि पता चला आगे दुर्घटना हुई है सड़क जाम है। मैं वहीं उतर गया,वैसे भी मुझे भुरकुंडा जाना था। सोचा कल नहीं तो आज ही रात जाते हैं। स्टैंड बिल्कुल ही खाली था। उम्मीद नही थी की कोई गाड़ी मिलेगी। मैं अकेला सड़क पर खड़ा था तभी एक ऑटो फर्राटे से आई और मेरे पास आकर रुक गयी।
"कहां जाना है साहब?भुरकुंडा?"मीठी आवाज सुनकर चौंक गया। ऑटो में करीब 10 यात्री बैठे थे और ड्राइवर की सीट पर कोई 30 साल की सुंदर सी महिला थी।
"हाँ जाना तो है लेकिन जगह कहाँ है?" मैंने पूरे ऑटो में नजर दौड़ा दी।
"यहाँ बैठिए न" महिला थोड़ी खिसक कर रॉन्ग साइड में जगह बना दी। "जल्दी बैठिये मुझे घर जाकर बच्चों के लिए खाना भी बनाना है"
रात काफी हो चुकी थी कोई गाड़ी की उम्मीद नही थी। मैं वहीं बैठ गया और वो ऑटो को सरपट दौड़ा गयी। उसका उत्साह देखकर दिनभर की थकान मैं भूल चुका था।
"अभी जाकर भोजन बनाओगी!घर में और कोई नहीं है क्या?आपका नाम क्या है ?मेरा पत्रकार मन जागृत हो उठा।
"बसन्ती!बसन्ती नाम है मेरा। मेरे चार बच्चें है ,बेटी की शादी कर दी है और तीन बेटे अभी पढ़ाई कर रहे हैं।" बसन्ती ने बड़ी उत्सुकता से कहा। शायद उसे उम्मीद नही थी कि कोई उसकी भी कहानी जानना चाहेगा।
"अरे वाह! तुम तो शोले वाली बसन्ती हो"मैने हंसते हुए कहा।
"अब क्या करें यही नाम है और स्टैंड में लोग रामगढ़ की बसन्ती कहते है" चुलबुले अंदाज में उसने कहा।
और तुम्हारे पति?" ऑटो के रफ्तार के साथ ही मेरी जिज्ञासा बढ़ रही थी।
इस सवाल पर वह इतनी गम्भीर हो गयी मानो दुखती रग पर मैंने हाथ रख दिया।
"मत पूछिए साहब! कितनी मुहब्बत करती थी उससे।घरवालों के ख़िलाफ़ जाकर हमने लव मैरिज किया था। बाप तो बहुत पहले गुजर चुका था। माँ थी और तीन भाई और चार बहनें।सबों ने विरोध किया। लेकिन मैं उसके प्रेम में अंधी हो चुकी थी। उसके घरवालों ने भी मुझे नही स्वीकारा। कुछ दिन बाद ही ससुरालवाले  मारपीट करने लगे। पति के साथ भुरकुंडा में ही एक कमरा लेकर रहने लगी। घर चलाने के लिए दोनों मजदूरी करने लगे। चार पांच वर्षों तक सब ठीक ठाक चलता रहा। लेकिन उसे शराब की ऐसी लत लगी थी कि जीवन नरक बन गया था। रोज किचकिच,झगड़ा और मारपीट करने लगा।ससुराल वालों को मतलब था नही।अपना दर्द किसे बताती,मायके का भी रास्ता तो बन्द कर रखा था। तंग आकर मैंने अलग रहने का फैसला कर लिया। न मायके में जगह मिली और न ही सुसराल में। रोज रोज के झगड़े से तंग आकर एकबार तो जहर भी ले आयी कि सभी बच्चों के साथ मर जाउंगी लेकिन बच्चों का चेहरा देख हिम्मत नही हुई। पड़ोस में रहनेवाले एक सज्जन ने 20 हजार उधार दिया जिससे एक पुरानी ऑटो खरीदकर चलवाने लगी। लेकिन ड्राइवर रोज धोखा देता।नुकसान देख खुद ड्राइवरी सीखना शुरू कर दिया। धीरे धीरे खुद चलाने भी लगी। घर मे बच्चों को संभालना,खाना बनाना और फिर ऑटो चलाना बहुत मुश्किल लग रहा था ।लोग तरह तरह की बातें भी करते।रास्ते मे यात्रियों की छेड़खानी का सामना करना पड़ता था लेकिन हिम्मत नहीं हारी और सभी मुसीबतों का डटकर सामना किया।लेकिन अब आदत बन गयी। उसे गम है तो सिर्फ इस बात पे की जिस व्यक्ति पर भरोसा किया,वही गलत निकल गया।अब उसके बारे में सोचती भी नहीं है।
अब तो अच्छी बचत होने लगी तो धीरे धीरे तीन ऑटो खरीद लिया, दो भाड़े पे लगा रखा है।
अब  आत्मनिर्भर बन गयी है।घर बना लिया।बेटी की शादी कर दी और तीनों बच्चों को पढ़कर अफसर बनाना चाहती है। दिनभर ऑटो चलाती है फिर घर जाकर खाना बनाती है।"

वह जितनी रफ्तार से ऑटो चला रही तक उतनी तेजी से अपनी कहानी भी कहती जा रही थी। जैसे शोले की बसन्ती। भुरकुंडा पहुंच चुके थे हम। वह अपने घर चली गयी और मेरे जेहन में एक सवाल छोड़ गई थी। इन मुश्किलों में जहां आदमी टूट जाता है वहीं औरत होकर भी इसने हिम्मत बरकरार रखा है।

पंकज प्रियम
10.4.2018

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