रोज सूरज से मैं जगता हूँ
तपिश में रोज ही जलता हूँ
कल की नई उम्मीदों में
हर रोज शाम सा ढलता हूँ।
रोज शब्दों को यूँ चुनता हूँ
एक ख़्वाब रोज बुनता हूँ।
लफ़्ज़ों की करके हेराफेरी
हर रोज किताब लिखता हूँ।
रोज जीवन को पढ़ता हूँ
एक नई लय रोज गढ़ता हूँ
अल्फ़ाज़ों की मंज़िल पर
हररोज एक कदम चढ़ता हूँ।
रोज नईं उम्मीदें करता हूँ
सपनों में ही रोज मरता हूँ
शब्दों को मैं छेड़कर भी
हररोज मर्यादा में रहता हूँ।
--©पंकज प्रियम
12.4.2018

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