Thursday, April 12, 2018

मर्यादा में रहता हूँ



रोज सूरज से मैं जगता हूँ
तपिश में रोज ही जलता हूँ
कल की नई उम्मीदों में
हर रोज शाम सा ढलता हूँ।

रोज शब्दों को यूँ चुनता हूँ
एक ख़्वाब रोज बुनता हूँ।
लफ़्ज़ों की करके हेराफेरी
हर रोज किताब लिखता हूँ।

रोज जीवन को पढ़ता हूँ
एक नई लय रोज गढ़ता हूँ
अल्फ़ाज़ों की मंज़िल पर
हररोज एक कदम चढ़ता हूँ।

रोज नईं उम्मीदें करता हूँ
सपनों में ही रोज मरता हूँ
शब्दों को मैं छेड़कर भी
हररोज मर्यादा में रहता हूँ।

--©पंकज प्रियम
12.4.2018

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